इक बगिया में छोटी चिड़िया
इक बगिया में छोटी चिड़िया
चूँ-चूँ, चा-चा करती थी,
डाल-डाल से, फूल-फूल से,
चोंच मिलाया करती थी।
रंगों की भरमार लगी थी,
फूलों की हर क्यारी में,
हरा, बसंती, लाल, नारंगी
भीनी खुशबू वारि में ।
उस बगिया में छोटे बच्चे,
फूलों को सहलाते थे,
हरी घास पर लोट-पोट हो,
दिल अपना बहलाते थे।
खुली हवा थी, नीला अम्बर,
चंदा श्वेत सलोना था,
आँख मिचोली, पिट्ठु, खो-खो,
अपने खेल निराले थे।
पेड़ों की ठंडी छाया में,
झूले डाला करते थे,
दादी की गोदी में सर रख,
ढेर कथाएं सुनते थे।
नहीं रहे वो दिन अब देखो,
दिखती नहीं हरियाली है,
काले बदल छाए हैं,
चेहरों से गायब लाली हैं।
धुएँ से आँखे भोझल हैं,
और चंदा श्यामल दिखता है,
सूरज का तेज विराट हुआ है ,
तारों का आँचल फीका है।
पत्ते झड़-झड़ टूट रहे हैं ,
फूलों की पहचान गुमी,
मध्यम गति से चलती वायु ,
आज प्रलय का सार बनी।
कोमल काया रोग के वश हो,
जल्दी जीवन त्याग रही है ,
हर क्यारी को, फूलों को वह,
निर्दयता से मार रही है।
हम नन्हे बच्चों की सोचो,
हम तारों को छूना चाहें,
ईंटों के इस शहर के बाहर,
खुली हवा में जीना चाहें।
नीला अम्बर, श्वेत चन्द्रमा,
इनको हमने कभी न देखा,
लम्बी ताने कभी रात में ,
तारों को गिन कर न देखा।
हम भी चाहें हरी घास पर,
लोट-पोट हो दिल बहलाना,
फूलों की खुशबु को लेना,
हर डाली को सहलाना।
इक बगिया में छोटी चिड़िया,
क्या फिर चूँ-चूँ गाएगी,
हर डाली से,हर फूल से,
क्या फिर चोंच मिलाएगी!!
रचना
-निधि कुंद्रा
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